यह विश्व कप क्रिकेट मैच और आईपीएल के बीच एक कॉमर्शियल ब्रेक की तरह था. चार दिनों के भीतर भारत की ‘महान जैस्मिन क्रांति’ संपन्न हुई, जिसकी प्रतीक्षा में मध्यवर्ग एसी ऑन किये, पलक-पांवड़े बिछाये, रिमोट लिये और हाथों में कोक थामे बैठा था. या शायद अपने आयातित सोफे पर अधलेटा था. आइपीएल के शुरू होने से ठीक पहले सरकार जन-लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने पर सहमत हुई और अन्ना हजारे का भव्य तमाशा खत्म हुआ. जंतर-मंतर पर होनेवाले अधिकतर आयोजनों के उलट फंडेड भूख के इस प्रायोजित उत्सव में न तो कॉरपोरेट मीडिया ने पेशाब और शराब की बदबू खोजने की वह हिकारत दिखाई जो अक्सर किसानों के जुलूसों के समय पहले पन्ने पर आठ कॉलम की हेडिंग के साथ व्यक्त होती है और न सरकार ने जनता की मांगों को लेकर दिखाई जानेवाली अपनी स्थाई असंवेदनशीलता दिखाई. उल्टे पूरी व्यवस्था कतार बांधे खड़ी हो गयी- दुनिया की भ्रष्टतम कारपोरेट कंपनियां, टैक्सचोर मुंबइया फिल्मी सितारे और सांप्रदायिक फासीवादी से लेकर सरकारी वामपंथी पार्टियां तक- सभी इस तमाशे में अपनी भूमिका के साथ भारत माता की तसवीर के नीचे मौजूद थे. लेकिन इस ‘क्रांति’ की असलियत शुरू से ही उजागर थी. शिवाजी, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की हिमायत और भ्रष्टाचारियों को ‘फांसी पर लटका दो’ और ‘उनके हाथ काट दो’ के नारे के साथ शुरू हुए इस ‘धर्मयुद्ध’ का असली उद्देश्य भ्रष्टाचार के ताबूत में आखिरी कील ठोकना नहीं है, बल्कि इसका मकसद वास्तव में भारतीय राज्य के फासीवाद को अधिक मजबूत बनाना है. जन लोकपाल विधेयक का मसौदा हालांकि तैयार होना अभी बाकी है, लेकिन इसके जिस मॉडल की चर्चा हो रही है उसके तहत गठित लोकपाल के पास सर्वोच्च ताकत होगी. यह संस्था कानून लागू करेगी, मामलों की जांच करेगी और सजा भी सुनायेगी. इसके पास न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका तीनों के अधिकार रहेंगे. सत्ता का इतना केंद्रीकरण और जिम्मेदारियों का अभाव फासीवादी राज्य को मजबूत करने के अलावा और क्या करेगा?
शुरू में ही मन में कुछ सवाल उठ रहे हैं. मसलन इस विधेयक के अनुसार भ्रष्टाचार का मतलब क्या होगा? क्या यह भोपाल गैस हत्याकांड में यूनियन कार्बाइड द्वारा नेताओं-जजों और अधिकारियों को बांटी गयी रकमों का खुलासा करेगा और एंडरसन को सजा देगा? क्या यह एनरॉन को बिजली न उत्पादित करने के लिए सरकार द्वारा दी जा रही रकम को ‘रिश्वत’ मानेगा? क्या यह कंपनियों के साथ सरकारों द्वारा किये जानेवाले जनविरोधी गोपनीय करारों को भ्रष्टाचार के रूप में परिभाषित करेगा? कंपनियों को करों की भारी छूट और कानून में ढील का क्या होगा? क्या सलवा जुडूम चलाने के लिए टाटा-एस्सार द्वारा रकम दिया जाना भ्रष्टाचार माना जायेगा? जाहिर है कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा. और न ही यह विधेयक उन बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पैसे बांटने से रोक पायेगा. इसके उलट, जैसा देखा गया है, यह दलितों और वंचित तबकों से आनेवाले अधिकारियों-नेताओं को परेशान करने और उन्हें अपने काबू में रखने के लिए शासक वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जायेगा. पहले भी भ्रष्टाचार के अधिकतर उन्हीं मामलों को उजागर किया गया जिनमें इन तबकों से जुड़े नेता-अधिकारी शामिल थे. जबकि ऐसा नहीं है कि प्रभुत्वशाली ब्राह्मणवादी तबकों के लोग भ्रष्टाचार में शामिल नहीं हैं. सबसे अधिक भ्रष्ट वे ही हैं, लेकिन उन्हें छुआ तक नहीं जाता. एक और तथ्य इस संदेह को मजबूत करता है, वह है मसौदा तैयार करनेवाली कमेटी की सामाजिक संरचना.
इसके अलावा लोकपाल एक चुनी हुई संस्था नहीं होगा और न ही यह जनता के प्रति जिम्मेदार होगा. इसमें भारत रत्न, नोबेल और मैग्सेसे सम्मान प्राप्त भारतीयों, सुप्रीम और हाई कोर्टों के वरिष्ठ जजों, महालेखाकार (कैग), मुख्य निर्वाचन आयुक्त और संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष लोकपालों की नियुक्ति करेंगे. सब जानते हैं कि नोबेल सम्मान किनके हितों के लिए काम करनेवालों को मिलता है. सब यह भी जानते हैं कि मैग्सेसे के जनसंहारों का इतिहास क्या है और यह किन्हें और क्यों दिया जाता है. भारत रत्न की राजनीति से हम सब वाकिफ हैं ही. इनमें से अधिकतर इस व्यवस्था का ही हिस्सा हैं और उनकी पक्षधरता पहले से ही जगजाहिर है. तो फिर लोकपाल किनके हितों के लिए काम करेंगे और उनमें कौन लोग चुने जायेंगे- इसकी राजनीति हम नहीं समझ सकते, इतने भी हम नादान नहीं हैं. तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ इस कवायद का मतलब क्या है?
गरीबी, उत्पीड़न, संसाधनों की लूट, दमन, एक के बाद एक घोटालों के उजागर होने और जनता के पैसे की भारी लूट सामने आने से जनता में गुस्सा और आक्रोश तेज होता जा रहा है. इससे मुसीबत में फंसे हुए शासक वर्ग ने पहले तो अजमेर शरीफ, समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, मक्का मसजिद जैसे बम हमलों के जरिये जनता को बांटने और इस गुस्से को अल्पसंख्यकों के खिलाफ मोड़ने की कोशिश की. लेकिन इसका भंडा फूट जाने के बाद शासक वर्ग ने जनता के असंतोष को भटकाने के लिए यह रणनीति अपनायी है. इसमें सभी पात्र अपनी भूमिकाएं बखूबी निभा रहे हैं- अन्ना हजारे भी. जिस मीडिया ने हजारे का इतना गुणगान किया, उसने हजारे के सामंती, सांप्रदायिक ब्राह्मणवादी फासीवादी चरित्र का जिक्र तक नहीं किया. इन ‘प्रदर्शनकारियों’ ने देश के विकास में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी बाधा बताया और इस तरह एक और दमनकारी कानून की पटकथा तैयार हो गयी. इस नाटक के जरिये सरकार ने यह भी दिखाने की कोशिश की कि वह शांतिपूर्ण तरीकों से आंदोलन करनेवालों की सुनती है. लेकिन यही सरकार AFSPA जैसे दमनकारी कानून के खिलाफ इरोम शर्मिला के दस साल से अधिक पुराने उपवास को नजरअंदाज करती रही है.
तब फिर हजारे को क्यों सुना गया?
एक पूर्व सेना कर्मचारी अन्ना हजारे महाराष्ट्र में यह एक ‘आदर्श गांव’ चलाता है. यह गांव ब्राह्मणवादी हिंदू धार्मिक मान्यताओं, राष्ट्रवादी उन्माद, ‘शुद्ध’ नैतिकता और जातीय उत्पीड़न के आधार पर चलता है. यहां स्त्रियां, दलित और अल्पसंख्यक उत्पीड़ित और हाशिये पर हैं. हजारे का सपना एक उग्र-राष्ट्रवादी ब्राह्मणवादी भारत का सपना है. 2009 में हजारे ने राज ठाकरे का समर्थन किया. नीतीश और नरेंद्र मोदी का समर्थन भी इसी की अगली कड़ी है. मोदी ने हजारे को जो चिट्ठी लिखी है, वह इन दोनों की वैचारिक एकता को ही दिखाती है. एक बार फिर भ्रष्टाचार का उपयोग फासीवाद को मजबूत करने के आधार के रूप में किया गया है. यही नाटक इंदिरा गांधी के शासनकाल में 1970 के दशक में खेला गया था, जब जनता इंदिरा शासन के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी. तब इंदिरा ने कालाबाजार और भ्रष्टाचार को आपातकाल लागू करने का आधार बनाया था और असंतुष्ट जनता का फासीवादी दमन किया था. तब अन्ना हजारे की जगह विनोबा भावे ने इंदिरा के फासीवादी शासन के लिए लोगों की हिमायत जुटाने का काम किया और लोगों का ध्यान नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन से हटाया था. आज वह भूमिका अन्ना हजारे निभा रहे हैं. हजारे ने जनता के वाजिब गुस्से और असंतोष को एक फंडेड तमाशे में बदल दिया है. साथ ही हजारे के ‘आंदोलन’ ने उस शासक वर्ग को और अधिक ताकत दिला दी है जो गहराती सामाजिक-आर्थिक असमानता और जनता के दमन की बुनियाद पर ही जिंदा है. लेकिन तब भी वामपंथी पार्टियां (मुख्यतः सीपीआई, सीपीआईएम और भाकपा माले लिबरेशन) इस फासीवादी जुलूस में आगे-आगे रहे. लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने हजारे और जन लोकपाल विधेयक को अपनी पूरी हिमायत दी. उन्होंने न हजारे के दक्षिणपंथी इतिहास की परवाह की और न ही उसके फासीवादी एजेंडे की. उनकी आंख तब खुली जब हजारे ने मोदी और नीतीश की तारीफ की. तब उन्होंने हजारे के बयान को नकारने की अपील की. पर यह बात वे नहीं समझ पाये कि भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर हजारे के एजेंडे को अपनाते हुए- जो पूरी तरह ब्राह्मणवादी सांप्रदायिक एजेंडा है- उसके बयान को खारिज करना असंभव है.
यह समझना भी जरूरी है कि हजारे का भ्रष्टाचारविरोधी तमाशा शासकवर्ग की कलाबाजी है. इसलिए शासक वर्ग द्वारा प्रायोजित झूठे आंदोलनों के असली चरित्र को उजागर करने और उससे लड़ने के बजाय उसमें शामिल होना अवसरवाद और एनजीओपरस्त दिवालियेपन को ही दिखाता है. यह वैसी ही बात है जैसे साम्राज्यवादी एनजीओ मानते हैं कि महज कानून बना देना सारी समस्याओं का समाधान है- वह भी लोकपाल की तरह एक फासीवादी कानून. इसीलिए वे इस कानून को ’भ्रष्टाचार विरोधी एक मजबूत कानून’ मान रहे हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि किसी कानून का लागू होना या न होना राज्य के चरित्र और उसके हितों पर निर्भर करता है. यही राज्य आरक्षण और नरेगा के कानून भी बनाता है पर उनको कभी ठीक से लागू नहीं करता, लेकिन AFSPA और UAPA जैसे कानूनों को लागू करने में कभी कोई लापरवाही नहीं बरती जाती.
सच तो यह है कि वर्गों में विभाजित समाज में भ्रष्टाचार बुराई नहीं बल्कि व्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा है. जिस समाज में सारी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों की बुनियाद निजी संपत्ति में इजाफा हो, उसमें कोई भी गतिविधि बिना भ्रष्टाचार के नहीं चल सकती. आय और संसाधनों पर अधिकारों का जितना अधिक संकेंद्रण होगा, भ्रष्टाचार की मात्रा भी उतनी ही अधिक होगी. क्योंकि एक वर्ग समाज भले ही सबकी समानता की बात करे वह असमानता पर आधारित होता है और भ्रष्टाचार उन औजारों में से है, जो इस असमानता को संभव बनाते हैं. नरेगा का उदाहरण लेते हैं. अपने लागू होने के कुछ ही सालों के भीतर नरेगा देश की सबसे अधिक भ्रष्ट योजनाओं के रूप में स्थापित हुआ है. कई जगहों पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार नरेगा में तीन चौथाई रकम भ्रष्टाचारियों की जेब में चली जाती है. लेकिन सरकार इसे रोकने को लेकर गंभीर नहीं है, क्योंकि आर्थिक विकास के इस मॉडल में अर्थव्यवस्था तभी चल सकती है जब निचले स्तर पर धन का वितरण नहीं बल्कि संकेंद्रण हो. भ्रष्टाचार धन के इस संकेंद्रण को संभव बनाता है और इस तरह यह अर्थव्यवस्था को गति देता है. इसके अलावा आय और संसाधनों पर अधिकारों का ध्रुवीकरण तेज हो रहा हो और एक साथ सैकड़ों अरबपति और 20 रु रोज पर गुजर कर रहे करोड़ों गरीब मौजूद हों तो भ्रष्टाचार ही प्रभुत्वशाली तबके के विशेषाधिकारों को तय करने का औजार बनता है. इसलिए चाह कर भी शासक वर्ग मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचार को नहीं मिटा सकता, वरना वह खुद खत्म हो जायेगा.
भ्रष्टाचार का सवाल साम्राज्यवादी लूट से भी जुड़ा हुआ है. साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था भ्रष्टाचार के जरिये काम करती है. तीसरी दुनिया में भ्रष्टाचार के रूप में जमा रकम विभिन्न वित्तीय संस्थाओं द्वारा अमेरिका और दूसरे साम्राज्यवादी देशों में ले जायी जाती है, जहां वह साम्राज्यवादी देशों के व्यापार घाटे को पाटने के काम आती है. कुछ साल पहले अमेरिका में यह रकम सैकड़ों बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष थी. अगर यह रकम अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मिलनी बंद हो जाये तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था का बाहरी खाता डगमगा जायेगा और वहां का जीवन स्तर जमीन पर आ जायेगा. डॉलर भी कमजोर हो जायेगा तथा निवेश और ऋण के लिए पूंजी की उपलब्धता कम हो जायेगी. यह स्थिति वैश्विक साम्राज्यवादी ताकत के अस्तित्व को हिला देगी. इसलिए दुनिया का बढ़ता ध्रुवीकरण वास्तव में आपराधिक भ्रष्टाचार द्वारा जमा रकम के वित्तीय लेन-देन से जुड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट की एक सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि 630 लाख करोड़ रुपये की रकम भारत से बाहर गयी है. साम्राज्यवादी देशों में बड़े पैमाने पर काले धन का यह प्रवाह इन देशों में गरीबी, आर्थिक अस्थिरता और संकट को जन्म देता है. इसके नतीजे में ये देश फिर से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के पास वित्तीय मदद के लिए पहुंचते हैं और साम्राज्यवादी गुलामी में और अधिक बंध जाते हैं. ठीक यही वजह है कि दलाल शासक वर्ग, कारपोरेट जगत और मीडिया नहीं चाहेंगे कि भ्रष्टाचार पर वास्तविक रोक लगाई जाये. उल्टे वे इसे अधिक से अधिक कानूनी रूप देते जा रहे हैं. यह विशालकाय कारपोरेट घरानों को करों में भारी कानूनी छूट और दूसरी सुविधाओं को मुफ्त या नाम मात्र रकम पर मुहैया कराये जाने के रूप में सामने आता है. अकेले झारखंड जैसे राज्य में कुछ महीनों के लिए मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा द्वारा 2000 करोड़ रुपये जमा कर लेना बताता है कि कारपोरेट चालित वैश्वीकरण के इस दौर में कितना पैसा भ्रष्टाचार के रूप में बहाया जा रहा है.
हम देख रहे हैं कि इस तरह वाशिंगटन से लेकर दिल्ली और पंचायतों तक जब पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार की बुनियाद पर टिकी है, तब महज एक कानून बना देने से वह खत्म नहीं हो जायेगा. इसलिए जन लोकपाल विधेयक जनता के हितों को पूरा करना तो दूर, वह जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जायेगा. अन्ना हजारे जैसे लोग जनता का भला करने के लिए नहीं उठ खड़े हुए हैं. वे दरअसल इस समस्या के असली कारणों को छुपा रहे हैं.